सुंदरकांड पाठ हिंदी में अर्थ सहित | Sunderkand Path Hindi PDF Summary
नमस्कार भक्तों आज हम आपके लिए लेकर आये हैं सुंदरकांड पाठ हिंदी में अर्थ सहित PDF / Sunderkand Path PDF। सुंदरकांड पाठ करने से भगवान बजरंग बली प्रसन्न होते है तथा अपने भक्त को मन चाहा वरदान भी देते हैं। इस पाठ का जाप करने से लोगो के जीवन में सुख और समृद्धि आती है। इसके लगातार जाप करने से भगवान बजरंग बली अपने भक्त के सारे दुखो को दूर कर देते है तथा उन्हें एक शांति पूर्ण जीवन जीने का वरदान देते हैं।
इस लेख में हमने सुंदरकांड के सभी दोहा और सुन्दरकाण्ड चौपाई को अर्थ के साथ वर्णित किया है। सुन्दरकाण्ड के अलावा भक्तजनों को हनुमान चलीसा का पाठ भी करना चाहिए और ध्यान लगाकर हनुमत वंदना करनी चाहिए।
सुंदरकांड पाठ PDF | Sunderkand Path PDF
- यह कहा जाता है कि चालीस सप्ताह तक लगातार जो कोई श्रद्धापूर्वक सुंदरकाण्ड का पाठ करता है, तो उसके सभी मनोरथ पूरे होते हैं तथा जीवन के सभी कष्ट, दुःख, परेशानियाँ दूर हो जाती हैँ ।
- कई ज्योतिषी भी विपरित परिस्थितियों में सुंदरकांड करने की ही सलाह देते हैं। यदि किसी व्यक्ति के जीवन में अत्यधिक परेशानियां हो तथा कोई काम नहीं बन पा रहा है, आत्मविश्वास की कमी हो तो सुंदरकांड के पाठ से शुभ फल प्राप्त होता है।
सुंदरकांड पाठ हिंदी में अर्थ सहित PDF | Sunderkand Path PDF
हनुमानजी का सीता शोध के लिए लंका प्रस्थान
चौपाई (Chaupai)
जामवंतकेबचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंदमूलफलखाई॥
जामवंत जी के सुहावने वचन सुनकर हनुमानजी को अपने मन में वे वचन बहुत अच्छे लगे॥ और हनुमानजी ने कहा की हे भाइयो! आप लोग कन्द, मूल व फल खा, दुःख सह कर मेरी राह देखना॥
जब लगि आवौं सीतहिदेखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउहरषि हियँ धरिरघुनाथा॥
जबतक मै सीताजीको देखकर लौट न आऊँ, क्योंकि कार्य सिद्ध होने पर मन को बड़ा हर्ष होगा॥ ऐसे कह, सबको नमस्कार करके, रामचन्द्रजी का ह्रदय में ध्यान धरकर, प्रसन्न होकर हनुमानजी लंका जाने के लिए चले॥
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीरसँभारी।
तरकेउ पवनतनय बलभारी॥
समुद्र के तीर पर एक सुन्दर पहाड़ था। उसपर कूदकर हनुमानजी कौतुकी से चढ़ गए॥ फिर वारंवार रामचन्द्रजी का स्मरण करके, बड़े पराक्रम के साथ हनुमानजी ने गर्जना की॥
जेहिं गिरि चरन देइहनुमंता।
चलेउ सो गापाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एहीभाँति चलेउ हनुमाना॥
कहते हैं जिस पहाड़ पर हनुमानजी ने पाँव रखकर ऊपर छलांग लगाई थी, वह पहाड़ तुरंत पाताल के अन्दर चला गया॥ जैसे श्रीरामचंद्रजी का अमोघ बाण जाता है, ऐसे हनुमानजी वहा से चले॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥
समुद्र ने हनुमानजी को श्रीराम (रघुनाथ) का दूत जानकर मैनाक नाम पर्वत से कहा की हे मैनाक, तू जा, और इनको ठहरा कर श्रम मिटानेवाला हो॥
मैनाक पर्वत की हनुमानजी से विनती
सोरठा
सिन्धुवचन सुनी कान, तुरत उठेउ मैनाक तब।
कपिकहँ कीन्ह प्रणाम, बार बार कर जोरिकै॥
समुद्रके वचन कानो में पड़तेही मैनाक पर्वत वहांसे तुरंत उठा और हनुमानजीके पास आकर वारंवार हाथ जोड़कर उसनेहनुमानजीको प्रणाम किया॥
दोहा
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनुमोहिकहाँबिश्राम॥1॥
हनुमानजी ने उसको अपने हाथसे छूकर फिर उसको प्रणाम किया, और कहा की, रामचन्द्रजीका का कार्य किये बिना मुझको विश्राम कहा है?
हनुमानजी की सुरसा से भेंट
चौपाई
जातपवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँबलबुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥
हनुमानजी को जाते देखकर उसके बल और बुद्धि के वैभव कोजानने के लिए देवताओं ने नाग माता सुरसा को भेजा। उस नागमाताने आकर हनुमानजी से यह बात कही॥
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कहपवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥
आज तो मुझको देवताओं ने यह अच्छा आहार दिया। यह बात सुन हँस कर, हनुमानजी बोले॥
मैं रामचन्द्रजी का काम करके लौट आऊ और सीताजी की खबर रामचन्द्रजी को सुना दूं॥
तब तव बदन पैठिहउँ आई।
सत्यकहउँमोहिजानदे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउहनुमाना॥
फिर हे माता! मै आकर आपके मुँह में प्रवेश करूंगा। अभी तू मुझे जाने दे। इसमें कुछभी फर्क नहीं पड़ेगा। मै तुझे सत्य कहता हूँ॥ जब उसने किसी उपायसे उनको जाने नहीं दिया, तब हनुमानजीने कहा कि तू क्यों देरी करती है? तू मुझको नही खा सकती॥
जोजन भरि तेहिंबदनुपसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुतबत्तिसभयऊ॥
सुरसाने अपना मुंह एक योजनभरमें फैलाया। हनुमानजी ने अपना शरीर दो योजन विस्तारवाला किया॥ सुरसा ने अपना मुँह सोलह (१६) योजनमें फैलाया। हनुमानजीने अपना शरीर तुरंत बत्तीस (३२) योजन बड़ा किया॥
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूपदेखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अतिलघुरूप पवनसुत लीन्हा॥
सुरसा ने जैसा जैसा मुंह फैलाया, हनुमानजीने वैसेही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया॥
जब सुरसा ने अपना मुंह सौ योजन (चार सौ कोस का) में फैलाया, तब हनुमानजी तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर॥
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहिसिरुनावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधिबलमरमु तोर मैं पावा॥
उसके मुंहमें पैठ कर (घुसकर) झट बाहर चले आए। फिर सुरसा से विदा मांग कर हनुमानजी ने प्रणाम किया॥ उस वक़्त सुरसा ने हनुमानजी से कहा की हे हनुमान! देवताओंने मुझको जिसके लिए भेजा था, वह तेरा बल और बुद्धि का भेद मैंनेअच्छी तरह पा लिया है॥
दोहा
राम काजु सबु करिहहु तुम्हबलबुद्धिनिधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥2॥
तुम बल और बुद्धि के भण्डार हो, सो श्रीरामचंद्रजी के सब कार्य सिद्ध करोगे। ऐसे आशीर्वाद देकर सुरसा तो अपने घर को चली, और हनुमानजी प्रसन्न होकर लंकाकी ओर चले ॥2॥
सुंदरकांड पाठ हिंदी में अर्थ सहित PDF | Sunderkand Path PDF
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