संत रविदास जी के दोहे अर्थ सहित Hindi PDF Summary
नमस्कार मित्रों, आज इस लेख के माध्यम से हम आप सभी के लिए संत रविदास जी के दोहे अर्थ सहित PDF Download करने के लिए प्रदान करने जा रहे हैं। संत रविदास जी के दोहे अर्थ सहित PDF उन सभी विद्यार्थियों के लिए अत्यंत ही लाभदायक सिद्ध होगी जिनके सिलेबस में संत रविदास जी से संबन्धित अनेकों प्रश्न-उत्तर आते हैं।
यदि आप भी उन्हीं विद्यार्थियों में से एक हैं तो इस लेख के माध्यम से दी गयी जानकारी आपके लिए भी अत्यंत ही उपयोगी सिद्ध होगी। संत रविदास जी भक्तिकालीन संत थे। यह भगवान को बहुत मानते थे। इन्होनें अपने सम्पूर्ण जीवन में अनेकों महत्वपूर्ण पद, दोहे आदि की रचनाएँ की। इनकी रचनाएँ आज के दौर के लिए अत्यंत ही महत्व रखती है।
संत रविदास जी अपने दोहे आदि के माध्यम से लोगों को भगवान के प्रति आकर्षित करते हैं, और उनका मानना है कि कोई भी व्यक्ति किसी से भिन्न नहीं है। सब एक ही हैं। इसीलिए किसी को भी एक दूसरे से लड़ना नहीं चाहिए सबको एक साथ मिल-झुल कर रहना चाहिए किसी के साथ भी जाति के नाम पर भेद-भाव नहीं करना चाहिए।
संत रविदास जी के दोहे अर्थ सहित PDF
रैदास कहै जाकै हदै, रहे रैन दिन राम।
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम।।
अर्थ – रैदास जी कहते है कि जिसके हर्दय मे रात दिन राम समाये रहते है, ऐसा भक्त राम के समान है, उस पर न तो क्रोध का असर होता है और न ही काम भावना उस पर हावी हो सकती है।
हरि-सा हीरा छांड कै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रविदास।।
अर्थ – हरी के समान बहुमूल्य हीरे को छोड़ कर अन्य की आशा करने वाले अवश्य ही नरक जायेगें। यानि प्रभु भक्ति को छोड़ कर इधर-उधर भटकना व्यर्थ है।
रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच
नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच
अर्थ – इस दोहे में रविदासजी के कहने का तात्पर्य है की किसी जाति में जन्म के कारण व्यक्ति नीचा या छोटा नहीं होता है। किसी व्यक्ति को भिन्न उसके कर्म बनाते हैं। इसलिए हमें सदैव अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए। हमारे कर्म सदैव ऊंचें होने चाहिए।
जा देखे घिन उपजै, नरक कुंड मेँ बास ।
प्रेम भगति सों ऊधरे, प्रगटत जन रैदास ।।
अर्थ – जिस रविदास को देखने से घर्णा होती थी, जिसका नरक कुंद मे वास था, ऐसे रविदास जी का प्रेम भक्ति ने कल्याण कर दिया है ओंर वह एक मनुष्य के रूप मै प्रकट हो गए है।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
अर्थ – संत रविदास जी कहते हैं कि भगवान एक ही है। उनके राम, कृष्ण, हरी, इश्वर, करीम और राघव अलग-अलग नाम है। सभी वेद, कुरान और पुराण जैसे सभी ग्रंथों में एक ही इश्वर का गुणगान किया हुआ है और ये सभी ग्रन्थ इश्वर की भक्ति का पाठ सिखाते हैं।
रविदास’ जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच।
नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।
अर्थ – रविदास जी कहते हैं कि मात्र जन्म के कारण कोई नीच नहीं बन जाता हैं परन्तु मनुष्य को वास्तव में नीच केवल उसके कर्म बनाते हैं।
“मन चंगा तो कठौती में गंगा”
अर्थ – यदि आपका मन पवित्र है तो साक्षात् ईश्वर आपके हृदय में निवास करते है।
रहिमन निज संपति बिना, कोउ न बिपति सहाय।
बिनु पानी ज्यों जलज को, नहिं रवि सकै बचाय।।
अर्थ – संत रविदास जी कहते हैं कि मुश्किल परिस्थिति व्यक्ति की सहायता कोई नहीं करता है। उस समय उसके द्वारा कमाई गई दौलत या सम्पति ही उसके लिए सबसे मददगार होती है। ठीक उसी प्रकार सूर्य भी तालाब का पानी सूख जाने पर पर कमल को सूखने से नहीं बचा सकता है।
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
अर्थ – जिस तरह केले के पेड़ के तने को छिला जाये तो पत्ते के नीचे पत्ता फिर पत्ते के नीचे पत्ता और अंत में पूरा पेड़ खत्म हो जाता है लेकिन कुछ नही मिलता। उसी प्रकार इंसान भी जातियों में बाँट दिया गया है इन जातियों के विभाजन से इन्सान तो अलग अलग बंट जाता है और इन अंत में इन्सान भी खत्म हो जाते है लेकिन यह जाति खत्म नहीं होती है। इसलिए रविदास जी कहते है जब तक ये जाति खत्म नही होगी तब तक इन्सान एक दुसरे से जुड़ नही सकता है यानि एक नही हो सकता है।
कह रविदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।
अर्थ – संत रविदास जी कहते हैं कि इश्वर की भक्ति व्यक्ति को अपने भाग्य से प्राप्त होती है। यदि मनुष्य में थोड़ा सा भी घमण्ड नहीं है तो वह जरूर ही अपने जीवन में सफल होता है। ठीक इसी प्रकार जिस प्रकार एक विशालकाय हाथी शक्कर के दानों को बिन नहीं सकता है और एक छोटी सी दिखने वाली चींटी शक्कर के दानों को आसानी से बिन पाती है। इसी प्रकार मनुष्य को भी अपने जीवन में बड़पन का भाव त्यागकर इश्वर की भक्ति में लीन रहना चाहिए।
ब्राह्मण मत पूजिए जो होवे गुणहीन,
पूजिए चरण चंडाल के जो होने गुण प्रवीन।।
अर्थ – इस दोहे के माध्यम से संत रविदास जी कहना चाहते हैं की किसी की सिर्फ इसलिए पूजा नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह किसी पूजनीय पद पर है। यदि कोई व्यक्ति ऊँचें पद पर तो है पर उसमे उस पद के योग्य गुण नहीं है तो उसकी पूजा नहीं करनी चाहिए। इसके अतरिक्त कोई ऐसा व्यक्ति जो किसी ऊंचे पद पर तो नहीं है परन्तु उसमें पूज्जनीय गुण हैं तो उसका पूजन अवश्य करना चाहिए।
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय।।
अर्थ – संत रविदास जी कहते हैं कि सभी कामों को यदि हम एक साथ शुरू करते हैं तो हमें कभी उनमें सफलता नहीं मिलती है। ठीक उसी प्रकार यदि किसी पेड़ की एक एक टहनी और पत्ती को सींचा जाये और उसकी जड़ को सूखा छोड़ दिया जाये तो वह पेड़ कभी फ़ल नहीं दे पायेगा।
मन ही पूजा मन ही धूप,
मन ही सेऊं सहज स्वरूप।।
अर्थ – इस दोहे की पंक्तियों के माध्यम से स्वामी रविदास जी कहना चाहते हैं की जिसका मन निर्मल होता है भगवन उसी में वास करते हैं। जिस व्यक्ति के मन में कोई बैर भाव नहीं है, किसी प्रकार का लालच नहीं है, किसी से कोई द्वेष नहीं है तो उसका मन भगवान का मंदिर, दीपक और धूप है। ऐसे पवित्र विचारों वाले मन में प्रभु सदैव निवास करते हैं।
करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस।
कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास।।
अर्थ – रविदास जी का कहना है कि मनुष्य को हमेशा अच्छे कर्म करना रहना चाहिए, उससे मिलने वाले फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि कर्म करना मनुष्य का धर्म है तो उसका फल मिलाना भी हमारा सौभाग्य।
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