कबीर की भाषा Hindi - Description
नमस्कार पाठकों, इस लेख के माध्यम से आप कबीर की भाषा PDF प्राप्त कर सकते हैं। कबीर दास जी की भाषा सधुक्कड़ी एवं पंचमेल खिचड़ी हैं। उनकी भाषा में हिंदी भाषा की सभी बोलियों के शब्द सम्मिलित हैं। राजस्थानी, हरयाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा के शब्दों की बहुलता है कबीर को कबीरदास के नाम से भी जाना जाता है। कबीरदास जी साहित्य जगत के एक जाने – माने रहस्यवादी कवि थे जिनकी रचनाओं को साहित्य प्रेमियों ने बहुत पसंद किया है।
ऐसा कहा जाता है कि कबीरदास जी हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों ही धर्मों को मानते थे तथा एक ईश्वर की अवधारणा में विश्वास रखते थे।कबीर जी की जन्मतिथि के बारे में विद्वानों की अलग – अलग राय है किन्तु प्राप्त साक्षों के अनुसार उनका जन्म विक्रमी संवत १४५५ (सन १३९८ ई ० ) उत्तर प्रदेश के वाराणसी नामक स्थान पर हुआ था। यदि आप कबीर की भाषा के संदर्भ में विस्तार से पढ़ना चाहते हैं तो इस लेख के अन्त में दी गयी पीडीएफ़ फ़ाइल को डाउनलोड कर लें।
कबीर की भाषा PDF / Kabir Ki Bhasha PDF
क्रमांक | दोहा | अर्थ |
1. | तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ। वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ ॥ |
जीवात्मा कह रही है कि ‘तू है’ ‘तू है’ कहते−कहते मेरा अहंकार समाप्त हो गया। इस तरह भगवान पर न्यौछावर होते−होते मैं पूर्णतया समर्पित हो गई। अब तो जिधर देखती हूँ उधर तू ही दिखाई देता है। |
2. | कबीर माया पापणीं, हरि सूँ करे हराम। मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥ |
यह माया बड़ी पापिन है। यह प्राणियों को परमात्मा से विमुख कर देती है तथा
उनके मुख पर दुर्बुद्धि की कुंडी लगा देती है और राम-नाम का जप नहीं करने देती। |
3. | बेटा जाए क्या हुआ, कहा बजावै थाल। आवन जावन ह्वै रहा, ज्यौं कीड़ी का नाल॥ |
बेटा पैदा होने पर हे प्राणी थाली बजाकर इतनी प्रसन्नता क्यों प्रकट करते हो?
जीव तो चौरासी लाख योनियों में वैसे ही आता जाता रहता है जैसे जल से युक्त नाले में कीड़े आते-जाते रहते हैं। |
4. | जिस मरनै थै जग डरै, सो मेरे आनंद। कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥ |
जिस मरण से संसार डरता है, वह मेरे लिए आनंद है। कब मरूँगा और कब पूर्ण परमानंद स्वरूप ईश्वर का दर्शन करूँगा। देह त्याग के बाद ही ईश्वर का साक्षात्कार होगा। घट का अंतराल हट जाएगा तो अंशी में अंश मिल जाएगा। |
5. | मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥ |
मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-संपत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है? |
कबीर के दोहे PDF / Kabir Ke Dohe in Hindi PDF
- यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान। शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।
- “लाडू लावन लापसी ,पूजा चढ़े अपार पूजी पुजारी ले गया,मूरत के मुह छार !!”
- “पाथर पूजे हरी मिले, तो मै पूजू पहाड़ ! घर की चक्की कोई न पूजे, जाको पीस खाए संसार !!”
- “जो तूं ब्राह्मण , ब्राह्मणी का जाया ! आन बाट काहे नहीं आया !! ”
- “माटी का एक नाग बनाके, पुजे लोग लुगाया ! जिंदा नाग जब घर मे निकले, ले लाठी धमकाया !!”
- माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे । एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।
- काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब ।
- ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग । तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग ।
- जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए । यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए ।
- गुरु गोविंद दोऊ खड़े ,काके लागू पाय । बलिहारी गुरु आपने , गोविंद दियो मिलाय ।।
- सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज । सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।
- ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।
- ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।
- बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर । पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।
- बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय । जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।
- दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय ।
- चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये । दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए ।
- मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार । फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ।
- जाती न पूछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान ।
- तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार । सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ।
- नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए । मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए ।
- कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी । एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।
- जिनके नौबति बाजती, मैंगल बंधते बारि । एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥
- मैं-मैं बड़ी बलाइ है, सकै तो निकसो भाजि । कब लग राखौ हे सखी, रूई लपेटी आगि ॥
- उजला कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाहिं । एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥
- कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ । इत के भये न उत के, चाले मूल गंवाइ ॥
- `कबीर’ नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ । ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥
- पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार। याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार।।
You can download कबीर की भाषा PDF by clicking on the following download button.