कबीर ग्रंथावली | Kabir Granthawali PDF Hindi

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कबीर ग्रंथावली | Kabir Granthawali Hindi - Description

Dear readers, here we are offering Kabir Granthawali PDF (कबीर ग्रंथावली pdf) to all of you. Kabir Vani, prevalent in the world, is acceptable to the common man. Fearless and unfettered personalities are rare in the practice of Indian religion. Kabir is such a word-seeker of the Nirgun Saint poetry who attained amazing power by clashing with the religious, social, and political systems of his era. By filtering the polluted elements included in the traditional cultural flow, it was made not only palatable for the medieval period but also useful for the modern public.

That’s why the complex problem of determining the authentic text of Kabir’s speech has arisen. The supremacy of Bijak is valid in Kabir Panth, scholars have given importance to the Granthavalis. By taking iron from Pandits, Maulvis, Yogis, etc., Kabir established the value of self-conscious thoughts and feelings of the common man. Kabir’s speech emanated from the voice of a saint and got converted into different forms according to the difference of interest and place in the life of the seekers, followers, and people.

कबीर ग्रंथावली pdf | Kabir Granthavali pdf download

गुरुदेव को अंग

सतगुर सवाँन को सगा, सोधी सईं न दाति।

हरिजी सवाँन को हितू, हरिजन सईं न जाति॥1॥

बलिहारी गुर आपणैं द्यौं हाड़ी कै बार।

जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार॥2॥

सतगुर की महिमा, अनँत, अनँत किया उपगार।

लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार॥3॥

राम नाम के पटतरे, देबे कौ कुछ नाहिं।

क्या ले गुर सन्तोषिए, हौंस रही मन माहिं॥4॥

सतगुर के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ।

सतगुर हम स्यूँ लड़ि पड़ा महकम मेरा बाछ॥5॥

सतगुर लई कमाँण करि, बाँहण लागा तीर।

एक जु बाह्यां प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर॥6॥

सतगुर साँवा सूरिवाँ, सबद जू बाह्या एक।

लागत ही में मिलि गया, पढ़ा कलेजै छेक॥7॥

सतगुर मार्‌या बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि।

अंगि उघाड़ै लागिया, गई दवा सूँ फूंटि॥8॥

हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि।

कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुर कै हथियार॥9॥

गूँगा हूवा बावला, बहरा हुआ कान।

पाऊँ थै पंगुल भया, सतगुर मार्‌या बाण॥10॥

पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।

आगै थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥11॥

दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट।

पूरा किया बिसाहूणाँ, बहुरि न आँवौं हट्ट॥12॥

ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ।

जब गोबिंद कृपा करी, तब गुर मिलिया आइ॥13॥

कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटैं लूँण।

जाति पाँति कुल सब मिटै, नांव धरोगे कौण॥14॥

जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।

अंधा अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥15॥

नाँ गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव।

दुन्यूँ बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव॥16॥

चौसठ दीवा जोइ करि, चौदह चन्दा माँहि।

तिहिं धरि किसकौ चानिणौं, जिहि घरि गोबिंद नाहिं॥17॥

निस अधियारी कारणैं, चौरासी लख चंद।

अति आतुर ऊदै किया, तऊ दिष्टि नहिं मंद॥18॥

भली भई जू गुर मिल्या, नहीं तर होती हाँणि।

दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाँणि॥19॥

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पड़ंत।

कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत॥20॥

सतगुर बपुरा क्या करै, जे सिषही माँहै चूक।

भावै त्यूँ प्रमोधि ले, ज्यूँ वंसि बजाई फूक॥21॥

संसै खाया सकल जुग, संसा किनहुँ न खद्ध।

जे बेधे गुर अष्षिरां, तिनि संसा चुणि चुणि खद्ध॥22॥

चेतनि चौकी बैसि करि, सतगुर दीन्हाँ धीर।

निरभै होइ निसंक भजि, केवल कहै कबीर॥23॥

सतगुर मिल्या त का भयां, जे मनि पाड़ी भोल।

पासि बिनंठा कप्पड़ा, क्या करै बिचारी चोल॥24॥

बूड़े थे परि ऊबरे, गुर की लहरि चमंकि।

भेरा देख्या जरजरा, (तब) ऊतरि पड़े फरंकि॥25॥

गुरु गोविन्द तौ एक है, दूजा यह आकार।

आपा मेट जीवत मरै, तो पावै करतार॥26॥

कबीर सतगुर नाँ मिल्या, रही अधूरी सीप।

स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगै भीष॥27॥

सतगुर साँचा सूरिवाँ, तातै लोहिं लुहार।

कसणो दे कंचन किया, ताई लिया ततसार॥28॥

थापणि पाई थिति भई, सतगुर दीन्हीं धीर।

कबीर हीरा बणजिया, मानसरोवर तीर॥29॥

निहचल निधि मिलाइ तत, सतगुर साहस धीर।

निपजी मैं साझी घणाँ, बांटै नहीं कबीर॥30॥

चौपड़ि माँडी चौहटै, अरध उरध बाजार।

कहै कबीरा राम जन, खेलौ संत विचार॥31॥

पासा पकड़ा प्रेम का, सारी किया सरीर।

सतगुर दावा बताइया, खेलै दास कबीर॥32॥

सतगुर हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग।

बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया अब अंग॥33॥

कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरष्या आइ।

अंतरि भीगी आत्माँ हरी भई बनराइ॥34॥

पूरे सूँ परचा भया, सब दुख मेल्या दूरि।

निर्मल कीन्हीं आत्माँ ताथैं सदा हजूरि॥35॥

सुमिरन को अंग

तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।

वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ॥9॥

 

कबीर निरभै राम जपि, जब लग दीवै बाति।

तेल घट्या बाती बुझी, (तब) सोवैगा दिन राति॥10॥

 

कबीर सूता क्या करै, जागि न जपै मुरारि।

एक दिनाँ भी सोवणाँ, लंबे पाँव पसारि॥11॥

 

कबीर सूता क्या करै, काहे न देखै जागि।

जाका संग तैं बीछुड़ा, ताही के संग लागि॥12॥

कबीर सूता क्या करै उठि न रोवै दुक्ख।

जाका बासा गोर मैं, सो क्यूँ सोवै सुक्ख॥13॥

कबीर सूता क्या करै, गुण गोबिंद के गाइ।

तेरे सिर परि जम खड़ा, खरच कदे का खाइ॥14॥

कबीर सूता क्या करै, सुताँ होइ अकाज।

ब्रह्मा का आसण खिस्या, सुणत काल को गाज॥15॥

केसो कहि कहि कूकिये, नाँ सोइयै असरार।

राति दिवस के कूकणौ, (मत) कबहूँ लगै पुकार॥16॥

कबीर की साखियां //सुमिरन को अंग // साखी 17 से 24

जिहि घटि प्रीति न प्रेम रस, फुनि रसना नहीं राम।

ते नर इस संसार में, उपजि षये बेकाम॥17॥

 

कबीर प्रेम न चाषिया, चषि न लीया साव।

सूने घर का पाहुणाँ, ज्यूँ आया त्यूँ जाव॥18॥

 

पहली बुरा कमाइ करि, बाँधी विष की पोट।

कोटि करम फिल पलक मैं, (जब) आया हरि की वोट॥19॥

कोटि क्रम पेलै पलक मैं, जे रंचक आवै नाउँ।

अनेक जुग जे पुन्नि करै, नहीं राम बिन ठाउँ॥20॥

जिहि हरि जैसा जाणियाँ, तिन कूँ तैसा लाभ।

ओसों प्यास न भाजई, जब लग धसै न आभ॥21॥

राम पियारा छाड़ि करि, करै आन का जाप।

बेस्वाँ केरा पूत ज्यूँ, कहे कौन सूँ बाप॥22॥

कबीर आपण राम कहि, औरां राम कहाइ।

जिहि मुखि राम न ऊचरे, तिहि मुख फेरि कहाइ॥23॥

जैसे माया मन रमै, यूँ जे राम रमाइ।

(तौ) तारा मण्डल छाँड़ि करि, जहाँ के सो तहाँ जाइ॥24॥

कबीर की साखियां //सुमिरन को अंग // साखी 25 से 32

लूटि सकै तो लूटियो, राम नाम है लूटि।

पीछै ही पछिताहुगे, यहु तन जैहै छूटि॥25॥

लूटि सकै तो लूटियो, राम नाम भण्डार।

काल कंठ तै गहैगा, रूंधे दसूँ दुवार॥26॥

लम्बा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार।

कहौ संतो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरिदीदार॥27॥

गुण गाये गुण ना कटै, रटै न राम बियोग।

अह निसि हरि ध्यावै नहीं, क्यूँ पावै दुरलभ जोग॥28॥

कबीर कठिनाई खरी, सुमिरतां हरि नाम।

सूली ऊपरि नट विद्या, गिरूँ तं नाहीं ठाम॥29॥

कबीर राम ध्याइ लै, जिभ्या सौं करि मंत।

हरि साग जिनि बीसरै, छीलर देखि अनंत॥30॥

कबीर राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ।

फूटा नग ज्यूँ जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ॥31॥

कबीर चित्त चमंकिया, चहुँ दिस लागी लाइ।

हरि सुमिरण हाथूं घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ॥32॥

विरह को अंग

कबीर की साखियां //विरह को अंग // साखी 1 से 11

कबीर ग्रंथावली

रात्यूँ रूँनी बिरहनीं, ज्यूँ बंचौ कूँ कुंज।

कबीर अंतर प्रजल्या, प्रगट्या बिरहा पुंज॥1॥

अबंर कुँजाँ कुरलियाँ, गरिज भरे सब ताल।

जिनि थे गोविंद बीछुटे, तिनके कौण हवाल॥2॥

चकवी बिछुटी रैणि की, आइ मिली परभाति।

जे जन बिछुटे राम सूँ, ते दिन मिले न राति॥3॥

बासुरि सुख नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माँहि।

कबीर बिछुट्या राम सूँ ना सुख धूप न छाँह॥4॥

बिरहनि ऊभी पंथ सिरि, पंथी बूझै धाइ।

एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैगे आइ॥5॥

बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।

जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम॥6॥

बिरहिन ऊठै भी पड़े, दरसन कारनि राम।

मूवाँ पीछे देहुगे, सो दरसन किहिं काम॥7॥

मूवाँ पीछै जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।

पाथर घाटा लोह सब, (तब) पारस कौंणे काम॥8॥

अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसो कहियाँ।

कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पासि गयां॥9॥

आइ न सकौ तुझ पै, सकूँ न तूझ बुझाइ।

जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ॥10॥

यहु तन जालौं मसि करूँ, ज्यूँ धूवाँ जाइ सरग्गि।

मति वै राम दया, करै, बरसि बुझावै अग्गि॥11॥

कबीर की साखियां //विरह को अंग // साखी 12 से 22

यहु तन जालै मसि करौं, लिखौं राम का नाउँ।

लेखणिं करूँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ॥12॥

कबीर पीर पिरावनीं, पंजर पीड़ न जाइ।

एक ज पीड़ परीति की, रही कलेजा छाइ॥13॥

चोट सताड़ी बिरह की, सब तन जर जर होइ।

मारणहारा जाँणिहै, कै जिहिं लागी सोइ॥14॥

कर कमाण सर साँधि करि, खैचि जू मार्‌या माँहि।

भीतरि भिद्या सुमार ह्नै जीवै कि जीवै नाँहि॥15॥

जबहूँ मार्‌या खैंचि करि, तब मैं पाई जाँणि।

लांगी चोट मरम्म की, गई कलेजा जाँणि॥16॥

जिहि सर मारी काल्हि सो सर मेरे मन बस्या।

तिहि सरि अजहूँ मारि, सर बिन सच पाऊँ नहीं॥17॥

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्रा न लागै कोइ।

राम बियोगी ना जिवै, जिवै त बीरा होइ॥18॥

बिरह भुवंगम पैसि करि, किया कलेजै घाव।

साधू अंग न मोड़ही, ज्यूँ भावै त्यूँ खाव॥19॥

सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।

और न कोई सुणि सकै, कै साई के चित्त॥20॥

बिरहा बिरहा जिनि कहौ, बिरहा है सुलितान।

जिह घटि बिरह न संचरै, सो घट सदा मसान॥21॥

अंषड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि निहारि।

जीभड़ियाँ छाला पड़्या, राम पुकारि पुकारि॥22॥

कबीर की साखियां //विरह को अंग // साखी 23 से 34

इस तन का दीवा करौं, बाती मेल्यूँ जीव।

लोही सींचौ तेल ज्यूँ, कब मुख देखौं पीव॥23॥

नैंना नीझर लाइया, रहट बहै निस जाम।

पपीहा ज्यूँ पिव पिव करौं, कबरू मिलहुगे राम॥24॥

अंषड़िया प्रेम कसाइयाँ, लोग जाँणे दुखड़ियाँ।

साँई अपणैं कारणै, रोइ रोइ रतड़िया॥25॥

सोई आँसू सजणाँ, सोई लोक बिड़ाँहि।

जे लोइण लोंहीं चुवै, तौ जाँणों हेत हियाँहि॥26॥

कबीर हसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौं चित्त।

बिन रोयाँ क्यूँ पाइये, प्रेम पियारा मित्त॥27॥

जौ रोऊँ तो बल घटे, हँसौं तो राम रिसाइ।

मनही माँहि बिसूरणाँ, ज्यूँ घुंण काठहि खाइ॥28॥

हंसि हंसि कंत न पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ।

जो हाँसेही हरि मिलै, तो नहीं दुहागनि कोइ॥29॥

हाँसी खेलौ हरि मिलै, तौ कौण सहे षरसान।

काम क्रोध त्रिष्णाँ तजै, ताहि मिलैं भगवान॥30॥

पूत पियारो पिता कौं, गौंहनि लागा धाइ।

लोभ मिठाई हाथ दे, आपण गया भुलाइ॥31॥

डारि खाँड़ पटकि करि, अंतरि रोस उपाइ।

रोवत रोवत मिलि गया, पिता पियारे जाइ॥32॥

नैना अंतरि आचरूँ, निस दिन निरषौं तोहि।

कब हरि दरसन देहुगे सो दिन आवै मोंहि॥33॥

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