गुरु रविदास जी की वाणी | Guru Ravidas Ji Ki Bani Hindi PDF Summary
नमस्कार मित्रों, आज इस लेख के माध्यम से हम अप सभी के लिए गुरु रविदास जी की वाणी PDF / Guru Ravidas Ji Ki Bani PDF in Hindi भाषा में प्रदान करने जा रहे हैं। क्या आप जानते हैं कि सतगुरु रविदास जी 15वीं शताब्दी के एक महान संत, दर्शनशास्त्री, कवि तथा समाज-सुधारक भी थे। इसी के साथ वे ईश्वर के परम अनुयायी थे।
समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए गुरु रविदास जी ने घोर संगर्ष किया था। इसीलिए संत रविदास जी भारत के उन महापुरुषों में से एक माने जाते हैं जिन्होंने अपने कर्म और वचनों से सभी को अच्छाई, परोपकार और भाई चारे का सन्देश दिया। रविदास जी को रैदासके नाम से भी जाना जाता है। संत रविदास जी ने अनेकों महत्वपूर्ण रचनाएँ की हैं।
इन्होनें अपनी रचनाओं एवं रूहानी आवाज़ से गाये गीतों तथा भजनों के सहारे से सम्पूर्ण संसार को सत्य के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया है। तो मित्रों, यदि आप Sant Ravidas Ji Ki Bani PDF Hindi भाषा में प्राप्त करके विशेष जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं तो हमारे इस लेख के माध्यम से आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।
गुरु रविदास जी की बानी PDF | Guru Ravidas Ji Ki Vani in Hindi PDF
भक्तिकाल में समाज मे व्याप्त विसंगतियों के दौर में मानवीय कल्याण की भावना संत परम्परा का प्रमुख लक्ष्य था। संत रविदास ने समाज में सुधार लाने की चेष्टा संत कबीर की तरह खंडनात्मक पद्धति से नहीं की अपितु विनम्रता से मानव मन की दुष्प्रवृतियों का परिष्कार करते है, जिसके कारण समाज में कुरीतिया उत्पन्न हुई है। वह स्वयं को चमार कह कर वास्तविकता से मुँह नहीं मोड़ते।
अैसी मेरी जाति विश्यात चमार ,
हिरदै राम गोबिन्द गुन मारं।
सुरसरी जल लीया कृत बारूणी रे
जैसे संत जन करत नहीं पान।
अनेक अधम जीव नां गुणि उधरे ,
पतित पावन भये परसिसारं।
भणत रैदास ररंकार गुण गावता
संत साधु भये सहजि पार।
मानव जन्म से ऊँच – नीच नहीं , कर्म से ऊँचा या नीचा होता है। हृदय में गुणों त्रिगुण के नाशक भगवान है। भगवान का नाम लेकर अनेक अधम जीवों का उद्धार हुआ। सार तत्व को प्राप्त कर पतित पावन हो गए।
“ हम अपूजि पूजि भये हरि तैं , नाम अनुपम गाया रे।
हम अपराधी नीच पर जम्मै , कुटुम्ब लाजकरै हंसीरे। ”
अर्थात नीच घर में जन्म लेने के कारण नीच समझते थे , परन्तु प्रभु भक्ति से अपूज्य होते हुए भी सम्मानित हुए। गुरू रविदास के सामाजिक सम्मान का एकमात्र कारण यही था कि उनकी वाणी इतनी विनम्र और सरल थी। किसी भी धर्म , जाति , वर्ण का मनुष्य अपने जीवन को सफल बना सकता था।
गुरू रविदास ने इसी बात पर बल दिया कि ब्राण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र सभी वर्ग के लिये भक्ति के दरवाजे खुले हैं। गुरू रविदास जी कहते हैं कि साधु किसी भी वर्ण का हो , गरीब हो , ईश्वर वहां निवास करता है। ब्राण , वैश्य , शूद्र , डोम , चंडाल , मलेच्छ मन वही है।
ये सब भगवान के भजन से मुक्त होते हैं और अपने और दूसरों के कुल को भी तारते हैः
“ जिह कुल साधु बैसनौ होई
बरन अबरन रंकू नहीं ईसरू विमल बासु जानी ऐ जागी सोई
ब्रहमन बैस सूद्र अरूख्यत्री डोम चंडार मलेच्छ मन सोई।
होई पुनीत भगवंत भजन से आपु तारि तारै कुल दोई।। ”
संत रविदास के सन्दर्भ में डॉ . नरेश लिखते हैं – “ रविदास वाणी में चित्रित समाज उनकी कविता को अनुभव से जोड़ता है। यह अनुभव व्यक्तिगत भी है और सामूहिक भी। सामूहिक इसलिये कि सामाजिक प्राणी के तौर पर कवि जो कुछ भी रचता है , उसमें उसकी ऐसी अनुभूति प्रकट होती है।
इस प्रकार रविदास जी की वाणी का आधार कवि का व्यक्तिगत अनुभव है , जो व्यक्तिगत होते हुए भी सामूहिकता के गुण से संयुक्त है। 8 इस प्रकार संत कवि समाज में हो रहे अन्याय के विरूद्ध खंडनात्मक और मंडनात्मक तरीके से मानव कल्याण के खातिर न्याय के लिये आवाज़ उठाते थे।”
भारतीय समाज जो अपनी संस्कृति के कारण पूरे विश्व में ख्याति थी। समाज के चन्द स्वार्थी प्रतिष्ठित लोगों ने वर्ण व्यवस्था का दुरूपयोग कर समाज को विभाजित कर दिया। इस प्रकार मध्य युगीन समाज का विभाजन पूरे देश के लिये अभिशाप सिद्ध हुआ।
डॉ . चन्द्रदेव राय कहते हैं – “ कोई जन्मना ऊँचा और कोई नीचा समझा जाने लगा हिन्दू धर्मावलम्बियों का सम्पूर्ण नेतृत्व ब्राहम्ण वर्ग के हाथ चला गया और शूद्रों की घोर अवहेलना की परिस्थिति तैयार हो गई। उन्हें अन्त्यज करार दिया गया और उन का स्पर्श तक अपित्र समझा जाने लगा। यह वर्ग सामाजिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से अत्यन्त उपेक्षित बन गया।
स्वास्थ्य नाशक एवं घृणास्पद सेवा कार्यों की लक्ष्मण रेखा ने उनके बौद्धिक और मानसिक सामर्थ्य को बांध दिया था। उन्हें सदा ही उच्च वर्ग की कृपा का मुखापेक्षी बना रहना पड़ता था।
संत रविदास ने वर्ण व्यवस्था का समर्थन नहीं किया , बल्कि समता भाव , समदर्शिता का संदेश , कर्म – अकर्म पर विचार कर मानवतावाद पर बल देकर समसामयिक समाज को अपनी विनम्र वाणी से आलोकित किया हैः –
मरम कैसे पाइबो रे , पंडित क्यूं न कहै समझाइ।
तातै मरौ आवागमन बिलाई।
बहुत बिधि धरम निरूपाऐ करता दसै सब कोई।
जिहि घट में पूम छूटि है , सोधरम नहीं चीन्हे कोई।
करम – अकरम विचारिए , सुनि – सुनि बेद पुरान।
संसा सदा हिरदै बसै हरि बिन कौन है रे अभिमान।
गुरू रविदास ने मनुष्य के थोथेपन और रूढ़िग्रस्त समाज को सहज शब्दों में अंधविश्वासों से दूर रहने की नसीयत दी हैं :
जिन थोथरे पिछौरे कोई , जो परिछौरे कण हो कई।
झूठो रे यहु तन झूठी माया , झूठा हरि बिन जन्म गंवाया।
झूठा रे मंदर भोग विलासा , कहि समझावै जन रैदासा
थोथा पंडित थोथा वाणी , थोथी हरि बिन सबै कहानी।
थोथा मन्दिर भोग विलासा , थोथी आन देव की आसा।
साचा सुमरिन नाव विश्वासा , मन वच कर्म कहै रैदासा।
थोथापन त्यागकर अपने भीतर की आत्मा बचा लो। मैं हिन्दू हूँ , मैं मुसलमान हूँ , मैं ईसाई हूँ। इस प्रकार के विचार त्याग कर धर्म की आत्मा बचा कर अंतःकरण की आवाज पहचानो। जीवन का मोह , स्वपन सब थोथा है। जब तक अहंकार त्याग कर राम से नाता नहीं जोड़ा तो धन , पद , प्रतिष्ठा सब व्यर्थ है। थोथे पंडित के पांडित्य तो केवल सांसारिक लोग है। स्वानुभाव के बिना ज्ञान की बातें सब व्यर्थ है।
मंदिर , मस्जिद , गुरुद्वारा आदि सब थोथे हैं। मनुष्य की आशाएँ देवता पूरी नहीं करेगा। अपितु परमात्मा के प्रति श्रद्धा भाव से स्मरण ही जीवन की वास्तविकता है। मनुष्य की आशा , वासना ने ही सांसारिक देवताओं की ईजाद की है। इसलिये थोथेपन में उलझना जीवन की सार्थकता नहीं केवल भ्रम है।
सन्त न केवल समाज सुधारक थे अपितु मानव चरित्र सुधारने के लिये मानवतावाद का भी संदेश दिया। आचार्य परशु राम चतुर्वैदी के शब्दों में “ उनकी एकेश्वरवादी भावना , सामाजिक भेदभाव विहीनता तथा धार्मिक समानता के वैशिष्ट्य ने यहां की दलित , परिगणित , पिछड़ी हुई जातियों में एक नवीन आशा का संचार किया, जससे उनमें नवजागरण एवं स्वाबलम्बन का भाव उठने लगा और उनकी प्रतिक्रिया में यहां के उच्चवर्गीय लोगों को भी अपने नियन्त्रण के नियम ढीले करने पड़ गए।
फलतः भारतीय समाज की सामूहिक संत रविदास मनोवृति का झुकाव क्रमशः लोकोन्मुख होता गया।” संतों ने दोनों धर्मों के वैमनस्य को देखकर उनमें समन्वय ला कर संकीर्ण मानसिकता को दूर करने का जो कार्य अपनाया वह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस युग में थी। उन्होंने सामान्य को जो कर्मकांड की अपेक्षा मानव को मानवता और नैतिकता का मार्ग दिखाया।
उन्होंने सदाचार के जीवन का मर्म स्वीकार करते हुए कहा है :
“ संत संतोष अरू सदाचार जीवन को आधार
रविदास भये न देवते , जिन तिआगे पंच विकार। ”
संत रविदास तत्कालीन परिस्थितियों से पूर्णतया परिचित थे इसलिये उन की वाणी ने करूणा और शान्त भाव से समाज के लिये अनुकूल संदेश दे कर मानवतावाद का प्रचार किया। आने वाले समय में लाखों करोड़ों लोगों में विरला ही कोई व्यक्ति होगा जो निष्काम भक्ति , निस्वार्थ सेवा , दान , करुणा भाव का निर्वहन करेगा।
मानव – मानव में प्रेम भाव , परहित भावना कम देखने को मिलेगी। राष्ट्र हित की अपेक्षा स्वहित के लिए आदर्श को मुखौटा पहने हुए तृष्णा सुख की जननी को आधार बना कर वासना में मन अनुरक्त रहेगा। ऐसी परिस्थितियों में सन्त साहित्य का अध्ययन आवश्यक है , ताकि मानव की खोई हुई गरिमा पुनः जीवित हो उठे। अपने भीतर की ज्योति से पूरे ब्रांड को आलोकित कर सके।
संत रविदास और समकालीन सन्तों ने एक वर्गविहीन और अखण्ड समाज की कल्पना की। वे समाज में व्याप्त रूढ़िवादी परम्पराओं और कुरीतियों के विरूद्ध थे। संत रविदास ने जब अछूत वर्ग को धार्मिक संस्थानों में जाने के लिये द्वार बन्द देखा तो उनका दिंय द्रवित हो उठाः
अैसी भगति न होई रे भाई।
राम नाम बिन जो कुछ करिये , सो सब भर्म कहाई।
भक्ति न मूंड मुडाये , भगति न माला दिशायें।
भगति न चरण घंरूवाये में सब गुनीजन कहाई।
आपौ गयौ तब भगति पाई , अैसा है भगति भाई।
राम मिलयौ आपौ गुण शौयों , रिधि सिद्धि सबै जुगबाई।
कहै रैदास छूटिलै आसपास , तब हरि ताहि कै पासा।
आत्मा अस्थिर तब सब निधि पाई।
डॉ . हुकुमचन्द राजपाल के शब्दों में “ संत रविदास जी ने युग वास्तविकता को समझा , परस्पर भेदभाव के कटु अनुभवों को भोगा। तदुपंरात आत्मविश्वास एवं संयम से कार्य लेते हुए लोगों को अपनी नवीन जीवन दृष्टि प्रदान की – वस्तुतः उनका यही जीवन दर्शन उनके अमर संत होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज संत रविदास किसी वर्ग विशेष के नहीं , समस्त भारतीय जनमानस के प्रेरक है। ”
संत रविदास का जन्म मानव कल्याण के लिए ही हुआ। उन की दृष्टि में हिन्दू , मुस्लिम , ऊँच – नीच में कोई भेद नहीं है। वे हिन्दू – मुस्लिम एकता के लिये , जाति – पाति के खाई को पाटने के लिये निरंतर प्रयत्नशील थे , जो उनका मानवतावादी दृष्टिकोण था। उन्होंने मानवता के आगे जन , पद , मान , प्रतिष्ठा आदि को लघु बताया।
रविदास के विचार आज भी किसी राष्ट्र या समाज में प्रचलित अन्र्तविरोधी एवं समस्याओं का समाधान निकाल कर मानव की खोई हुई गरिमा वापिस ला सकती है। आज का समाज जाति – पाति , भ्रष्टाचार , घृणा , द्वेष , आतंकवाद , नक्सलवाद , मौलिक प्रतिभा का हनन , प्रकृति समस्याओं से जूझ कर नैतिक मूल्यों को खोता जा रहा है।
भारत जैसे प्रजातांत्रिक राष्ट्र में जनता की सेवा करने वाले चन्द स्वार्थी राजनितिज्ञ जो सता में आने के बाद राष्ट्र सेवा के नाम पर विदेशी बैंकों में पैसा जमा कर सवा अरब भारतीयों की भावनाओं के साथ बलात्कार करते है। मनुष्य को इस प्रकार की परिस्थितियों से निजात दिलाने के लिए मानवतावाद का पुनव्र्यवस्था अपरिहार्य है। संत रविदास का काव्य मानव को मानवतावाद के मार्ग में ले जाने में सहायक हो सकता है।
कोई भी राष्ट्र अगर मानवतावाद के पथ पर चलने की कोशिश करेगा। उससे न केवल इस देश का नहीं सम्पूर्ण विश्व का कल्याण सम्भव है। इसलिए आज सम्पूर्ण मानव जाति को मानव कल्याण एवं अस्तित्व प्रदान करने के लिये संत रविदास के काव्य का अध्ययन कर उसे व्यावहारिकता में लाना अनिवार्य है।
ताकि जिस भारत ने अध्यात्म , ध्यान , दर्शन , योग के क्षेत्र में पूरे विश्व का नेतृत्व किया , वह भारत फिर से विश्व का सिरमौर बन जाये।
रैदास का जीवन चरित्र
- रैदास जी दलित जाति के थे जो कि भगवान के अनन्य भक्त थे। आज उनका नाम हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि और देशों में भी प्रसिद्ध है।यह भी कबीर की तरह काशी में ही पैदा हुए थे। कहते हैं कि कबीर साहिब के साथ इनका परमार्थी संवाद कई बार हुआ जिसमें इन्होंने वेद शास्त्र आदि का मडन और कबीर साहिब ने खंडन किया है।
- जो हो, पर इस पथ के देखने से तो यही मालूम होता है कि रैदास जी को शास्त्रों में कुछ भी श्रद्धा न थी। माना जाता है कि पहले जन्म में रैदास जी बाम्हन थे। तब इन्होनें स्वामी रामानन्दजी से उपदेश लिया था और उनकी सेवा में लगे रहते थे।
- एक दिन अपने गुरु के भोजन के लिये एक वनिया से सामग्री ले आये जिसका व्यवहार दलित जाती के लोगों के साथ भी था। यह बात जानने पर रामानन्द जी ने क्रोध से श्राप दिया कि तुम भी दलित जाति में ही जन्म पाओगे। इस पर रैदास जी चोला छोड़ कर एक रग्घू नाम के दलित के घर घुरविनिया चमाइन से पैदा हुए परन्तु पूरबले जोग के बल से उनको पिछले जनम की सुध न विसरी और अपनी माँ की छाती में मुँह न लगाया।
- जब तक कि भगवन्त की आज्ञा से रामानन्द जी ने दलित के घर आप जाकर रैदास जी को माँ का दूध पीने की समझौती नहीं दी। स्वामी रामानन्द जी ने लड़के का नाम रविदास रखा, तभी से उन्हें लोग रैदास-रैदास भी कहने लगे।
- जब रैदास जी सयाने हुए तो भक्त और साधुओं की सेवा में सदा रहने लगे। साधु सेवा में ऐसा मन लग गया कि जो कुछ पैसा हाथ लगता उन पैसों को खिलाने-पिलाने और सत्कार में खर्च कर डालते।
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