आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ PDF Hindi

आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ Hindi PDF Download

Free download PDF of आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ Hindi using the direct link provided at the bottom of the PDF description.

DMCA / REPORT COPYRIGHT

आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ Hindi - Description

नमस्कार पाठकों, इस लेख के माध्यम से आप आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ PDF प्राप्त कर सकते हैं । आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ हिन्दी विषय का बहुत ही आवश्यक विषय है जिसके अंतर्गत आप हिन्दी के आधुनिक काल के संदर्भ में पढ़ते हैं । हिन्दी में साहित्यिक वादों एवं प्रवृतियों का परिचय अनेक पुस्तकों में सुलभ है।
कुछ उत्साही अपनी मौलिक खोज प्रमाणित करने के लिए हर यूरोपीयवाद के लिए हिंदी से कुछ-न-कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत कर देते हैं। इस प्रकार हिन्दी में धड़ल्ले से अभिव्यंजनावाद, अतियथार्थवाद, अस्तित्ववाद, प्रतीकवाद, प्रभाववाद, बिम्बवाद, भविष्यवाद, समाजवादी यथार्थवाद आदि की चर्चा हो रही है, गोया ये सभी प्रवृतियाँ हिन्दी साहित्य की हैं अथवा हिन्दी में भी प्रचलित रही हैं।

आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ PDF

हिन्दी में साहित्यिक वादों एवं प्रवृतियों का परिचय अनेक पुस्तकों में सुलभ है। सर्वत्र वादों की संख्या गिनाने में होड़-सी लगी हुई है। बहुज्ञता प्रदर्शित करने के लिए जैसे सबसे खुला मैदान यही दिखाई पड़ रहा है। कोशिश यही है कि किसी पाश्चात्यवाद का नाम छूट न जाये। कुछ उत्साही अपनी मौलिक खोज प्रमाणित करने के लिए हर यूरोपीयवाद के लिए हिंदी से कुछ-न-कुछ उदाहरण भी प्रस्तुत कर देते हैं। इस प्रकार हिन्दी में धड़ल्ले से अभिव्यंजनावाद, अतियथार्थवाद, अस्तित्ववाद, प्रतीकवाद, प्रभाववाद, बिम्बवाद, भविष्यवाद, समाजवादी यथार्थवाद आदि की चर्चा हो रही है, गोया ये सभी प्रवृतियाँ हिन्दी साहित्य की हैं अथवा हिन्दी में भी प्रचलित रही हैं। कहना न होगा कि ज्ञानवर्धन के इन उत्साही प्रयत्नों से आधुनिक हिन्दी साहित्य की अपनी वास्तविक प्रवृति के बारे में काफी भ्रम फैल रहा है। वैसे, किसी अन्य भारतीय साहित्य में प्रचलित प्रवृति एवं वाद का परिचय हिन्दी पाठक देना बुरा नहीं है और हिन्दी के किसी साहित्यिक आन्दोलन के मूल स्त्रोतों का परिचय देने के लिए सम्भावना के रूप में यदि यूरोप के किसी वाद की चर्चा की जाये तो उस पर भी शायद किसी को आपत्ति हो; किन्तु हिन्दी में अनेक प्रचलित-अप्रचलित देशी-विदेशी वादों को अन्धाधुन्ध चर्चा का निवारण होना चाहिए। निःसन्देह यह प्रवृति व्यावसायिक पुस्तकों में विशेष रूप से उभर कर आयी है, किन्तु सन्दर्भ के लिए प्रस्तुत किए जाने वाले सम्मानित साहित्य-कोशों ने भी इस भ्रम के प्रसार में काफी योगदान किया है।
किसी एक साहित्य में प्रचलित वाद के दो-एक अन्यत्र भी मिल सकते हैं, किन्तु इससे किसी साहित्य में उस वाद का अस्तित्व प्रमाणित नहीं होता। विभिन्न साहित्यिक वादों के उत्थान और पतन के इतिहास से परिचित अध्येता जानते हैं कि हर वाद अपने साहित्य एवं समाज के विशेष परिवेश के अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है और उसके आंदोलन के पीछे एक इतिहास है। उदाहरण के लिए फ्रान्सीसी प्रतीकवाद और अग्रेजी बिम्बवाद अपने-अपने निश्तित देशकाल से सम्बद्ध हैं, इसलिए हिन्दी में वादों की चर्चा करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक है कि अपने यहाँ ये वाद किसी साहित्यिक आन्दोलन के रूप में चले या नहीं और कुल मिलाकर इन्होंने हमारी साहित्यिक परम्परा में क्या योगदान दिया ? कहना न होगा कि हिन्दी में प्रायः इस विवेक को पीठ ही दी गयी है।
पिछले युग में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने समकालीन छायावादी एवं रहस्यवादी काव्य-प्रवृतियों की समीक्षा करते हुए क्रोचे के अभिव्यंजनावाद, पश्चिमी कलावाद, फ्रान्सीसी प्रतीकवाद आदि की विस्तृत आलोचना की थी क्योंकि अनका ख्याल था कि पाश्चात्य साहित्य की ये पतनोन्नमुख प्रवृतियाँ हिन्दी साहित्य पर भी दूषित प्रभाव डाल रही हैं। फिर क्या था वाद के लेखकों को कलम चलाने के लिए राजमार्ग मिल गया और इन वादों पर इस तरह लिखा जाने लगा जैसे कोई उनके घर की चीज हो। हिन्दी में अभिव्यजंनावाद को इतनी चर्चा देखकर कभी-कभी भ्रम होने लगता है कि क्रोचे इटली में नहीं, बल्कि भारत में ही पैदा हुआ था।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है। शुक्ल जी ने क्रोचे की कड़ी आलोचना की पीछे हिन्दी के दस अध्यापक क्रोचे के समर्थन में खड़े हो गये जैसे क्रोचे के साथ सहानुभूति दिखाना अत्यन्त आवश्यक हो गया हो। यह भी ‘अतिथि देवो भव’ के भारतीय आदर्श का उदाहरण है। किसी ने इस बात का पता लगाने का कष्ठ नहीं उठाया कि स्वयं यूरोपीय साहित्य में रचना के क्षेत्र में अभिव्यंजनावाद पर यह टिप्पणी है कि साहित्य रचना इसका प्रभाव न्यूनतम है-सिर्फ दो-तीन अभिव्यंवजनावादी नाटकों को छोड़कर और कुछ नहीं लिखा गया; दूसरी ओर ‘हिन्दी साहित्य कोश’ है जिसमें इस प्रकार के किसी तथ्य का उल्लेख नहीं है। हिन्दी पर पाश्चात्य प्रभाव का भी एक उदाहरण है।
You can download आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ PDF in Hindi by clicking on the following download button.

Download आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ PDF using below link

REPORT THISIf the download link of आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ PDF is not working or you feel any other problem with it, please Leave a Comment / Feedback. If आधुनिक काल की प्रवृत्तियाँ is a copyright material Report This by sending a mail at [email protected]. We will not be providing the file or link of a reported PDF or any source for downloading at any cost.

RELATED PDF FILES

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *